पंजाब में अलग खालिस्तान का मुद्दा हमेशा से ही गर्माहट का विषय रहा है और अभी हाल ही में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडौ की भारत यात्रा के दौरान यह दोबारा सुर्ख़ियों में छाया रहा। तो क्या है खालिस्तान आंदोलन का इतिहास और इससे जुड़े विवाद?
सिख सम्राज्य
महाराजा रणजीत सिंह ने सिख साम्राज्य की स्थापना 19वी सदी की शुरुआत में की थी। यह साम्राज्य आज के पंजाब क्षेत्र का हिस्सा था और इसकी राजधानी लाहौर थी जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है।
हालांकि उनकी मृत्यु के बाद कमज़ोर-विभाजित वारिसों के कारण यह जल्द ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो गया और आगे चल कर अंग्रेज़ भारत का हिस्सा बन गया।
आज़ादी के बाद
1947 में मिली आज़ादी के बाद पंजाब, भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित हो गया और भारत में आज के हरियाणा, हिमाचल प्रदेश को मिलाकर एक राज्य बना।
सिखों के प्रभुत्व वाली पार्टी अकाली दल की ओर से अलग पंजाब की मांग उठने लगी जिसे राज्य पुनर्गठन समिति ने भाषा के आधार पर न बांटने का फैसला किया।
किंतु कई हिंसात्मक विरोधों के चलते इंदिरा गाँधी सरकार ने 1966 में पंजाब को पंजाबी बोलने वाले पंजाब, हिंदी बोलने वाले हरियाणा, पहाड़ी बोलने वाले हिमाचल प्रदेश में विभाजित कर दिया।
केंद्र शासित चंडीगढ़ को पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी बनाया गया।
मांगों की राजनीति
पंजाबी आंदोलन ने अकाली दल को काफ़ी राजनीतिक फायेदा पहुँचायाI इसके बावजूद 1972 में चुनाव में मिली हार के बाद पार्टी ने आत्मचिंतन किया और 1973 में आनंदपुर साहिब संकल्प पेश किया जिसमे उसके कई भविष्य के प्रस्तावों को रखा गयाI
इनमे पंजाब के वो क्षेत्र जो एक अलग पंजाब राज्य का हिस्सा बनेंगे और अपने ख़ुद के संविधान को बनाने का हक़ शामिल था. इसका साफ़ उद्देश्य एक स्वायत्त पंजाब थाI
वहीँ दूसरी तरफ खालिस्तान समर्थक जगजीत सिंह चौहान ने अमरीका दौरे के दौरान ‘दी न्यूयॉर्क टाइम्स’ में उन्होंने खालिस्तान को लेकर एक विज्ञापन दिया, इसने उन्हें प्रवासी सिख समुदाय से लाखों डॉलर के दान दिलवाएI
12 अप्रैल 1980 को इंदिरा गाँधी के साथ मुलाकात में उन्होंने राष्ट्रीय खालिस्तान परिषद के गठन का एलान किया और ख़ुद को उसका अध्यक्ष एवं बलबीर सिंह संधू को उसका महासचिव घोषित कर दियाI
जरनैल सिंह भिंडरांवाले
आनंदपुर साहिब संकल्प को जल्द ही भुला दिया गया पर 1980 के दशक में यह दोबारा प्रकाश में आया।
अकाली दल और धार्मिक नेता जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने आपस में हाँथ मिलाये और खालिस्तान संकल्पों को लागू करने के लिए 1982 में धर्म युद्ध यात्रा की शुरुआत करी।
हजारों लोगों इस के साथ जुड़ते गए चूँकि उन्हें लगा की यह उनकी सिंचाई के लिए जयादा पानी और चंडीगढ़ पर अधिकार जैसी मांगों को पूरी कर सकता था।
80 के दशक की शुरुआत से ही इस आंदोलन ने हिंसात्मक रूप अपनाना शुरू कर दिया और इसी बीच भिंडरांवाले ने अपने समर्थकों के साथ हरमंदिर साहिब परिसर को अपना ठिकाना बना लियाI
भिंडरांवाले ने परिसर में भारी हथियार जुटाने शुरू कर दियेI जून 1984 में इंदिरा गाँधी सरकार ने ऑपरेशन ब्लूस्टार के दौरान हथियारबंद उग्रवादियों के खिलाफ साहिब में हमला बोल दिया जिसमें भिन्द्रानवाले सहित सैकड़ों लोगों की मौत हुईI
उग्रवाद का दंश
इसके बाद उठे उग्रवाद ने 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की उन्ही के दो सिख सुरक्षा कर्मियों द्वारा हमले में जान ले ली। विरोध में देश भर में सिखों के खिलाफ दंगे शुरू हो गये जिसमे हजारों निर्दोष लोगों की मौत हो गई।
उग्रवाद से पंजाब एक लम्बे समय तक झुलसता रहा जिसका दंश आम लोगों को लगता रहा। बब्बर खालसा संगठन को इनमे से कई आतंकी हमलों के लिए ज़िम्मेदार माना गया।
इस संगठन ने 23 जून 1985 में एयर इंडिया की फ्लाइट को बीच आसमान में बम से उड़ा दिया जिसमे 329 लोगों की मौत हो गयी।
शांति का दौर
1990 के दशक में पुलिस के साथ हुए अनेक मुठभेड़ों में बब्बर खालसा के कई नेता मारे गए हुए जिसने इस संगठन को कमज़ोर कर दिया।
इसका बड़ा श्रेय पंजाब के पूर्व डीजीपी केपी एस गिल को दिया जाता है जिन्होंने पंजाब में हिंसात्मक विद्रोह की घटनाओं में भरी कमी लायी।
1995 के बाद से अब तक पंजाब में काफ़ी हद तक शांति का माहौल स्थापित हुआ है और खालिस्तानी आंदोलन अब कमज़ोर हो चुका है। हालांकि अभी भी समय-समय पर कई लोगों पर इस आंदोलन के राजनैतिक इस्तेमाल के आरोप लगते रहते हैं।
क्या है इस आंदोलन का कनाडा से संबंध?
कनाडा में सिखों की एक बड़ी संख्या हैI 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद से वहां अतिवाद ने तेज़ी से अपने पैर पसारेI कनाडाई संसद सदस्य उज्जल दोसांझ ने एक बार कहा था कि वो और अन्य लोग जो इस अतिवाद के खिलाफ़ थे, वे हर वक्त आतंकित महसूस करते थेI
18 नवम्बर 1998 में पत्रकार तारा सिंह हाएर को गोली मार दी गयीI इसका आरोप सिख उग्रवादी समूहों के ऊपर लगाI हाएर कोर्ट के सामने एयर इंडिया फ्लाइट 182 के बारे में गवाही देने वाले थे जिसका संबंध साफ़ तौर पर उग्रवादी संगठनों से थाI
कनाडा की राजनीती में इसका असर सिखों की एक बड़ी तादाद होने से हैI आंदोलन का वोट बटोरने के इस्तेमाल के लिए हुआ जिसमे कई बार खुले मंचों से सिख उग्रवाद को समर्थन दिया गयाI
2008 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कनाडा में सिख उग्रवाद को लेकर अपनी चिंता ज़ाहिर की थीI
वर्त्तमान जस्टिन ट्रूडो प्रशासन के ऊपर खालिस्तान समर्थकों के ऊपर नरमी के आरोप लगते रहे हैं. और उनके मंत्रिमंडल पर खालिस्तान समर्थकों से भरे होने के सवाल भी उठे हैंI ज़ाहिर है ये मुद्दे भारत और कनाडा के बीच खटास का कारण बने रहे हैंI