Fri. Apr 19th, 2024

    भोपाल गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई को राजनीतिक दलों और तमाम गैर सरकारी संगठनों ने भले ही स्वार्थ के चाहे जिस चश्मे से देखा हो, मगर अब्दुल जब्बार ने पूरी जिंदगी इसे इबादत की तरह लिया। उनकी यह आस कभी खत्म नहीं हुई कि पीड़ितों को उनका हक मिलकर रहेगा। यही कारण है कि उनका अंतिम सांस तक संघर्ष जारी रहा। यह बात अलग है कि जीत की आस लगाए अब्दुल जब्बार अपनी जिंदगी की लड़ाई ही हार गए।

    भोपाल में यूनियन कार्बाइड से दो दिसंबर, 1984 की रात रिसी जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाएनेट ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया था और लाखों लोगों को बीमरियों का घर बना दिया। साल-दर-साल लोगों के काल के गाल में समाने का सिलसिला जारी है। अब्दुल जब्बार भी उन्हीं लोगों में से रहे, जिन्होंने इस मानव जनित आपदा के चलते अपने माता-पिता को खोया था।

    अब्दुल जब्बार जब महज 28 साल के रहे होंगे, तभी भोपाल गैस हादसा हुआ था। उसके बाद जब्बार गैस पीड़ितों की आवाज बन गए। उनके पूरे दिन का बड़ा हिस्सा या यूं कहें कि जिंदगी का बड़ा भाग गैस पीड़ितों की समस्याओं को सुलझाने, उनके हक की लड़ाई लड़ने में ही गुजरा। उन्हें अपने संघर्ष पर भरोसा था और जब भी मिलते जीत की आस को उनके चेहरे पर आसानी से पढ़ा जा सकता था। उन्हें किसी राजनीतिक दल और किसी भी नेता से कभी आस नहीं रही, अगर आस थी तो अपने लोगों के संघर्ष से। उन्होंने कई लड़ाइयां अपने साथियों के सहयोग से ही जीती थी।

    राजधानी की सेंट्रल लाइब्रेरी के पास स्थित अपने दफ्तर में जब्बार अक्सर एक कुर्सी पर बैठे मिलजे थे। उनके सामने एक टेलीफोन रखा होता था, जो उनका लोगों से संपर्क का बड़ा माध्यम था। पूरे दिन इसी दफ्तर से पीड़ितों की हर समस्या के निदान के लिए प्रयास करना और आगामी आंदोलन की रणनीति बनाने में लगे रहना उनकी दिनचर्या थी।

    अब्दुल जब्बार के कई आंदोलनों और संघषरें के साथी रहे समाजवादी नेता डॉ. सुनीलम का कहना है, “अब्दुल जब्बार एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सिर्फ सड़क ही नहीं न्यायालयों में भी गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ी। वह कई लड़ाइयां जीते भी। उनकी जिंदगी ही गैस पीड़ितों के संघर्ष का हिस्सा बन गई थी। तीन दशक तक एक ही मुद्दे पर लड़ाई लड़ी। उन्हें इस बात की कभी परवाह नहीं रही कि कौन दल और नेता उनके साथ है।”

    अब्दुल जब्बार ने भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाया और इसके बैनर तले अपनी लड़ाई जारी रखी। इसके साथ ही वह पीड़ित परिवारों को आर्थिक तौर पर सबल बनाने के लिए काम करते रहे। महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई, कंप्यूटर, खिलौने बनाने आदि का प्रशिक्षण भी देते रहे।

    गैस पीड़ितों के आंदोलन को अब्दुल जब्बार ने कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। हर शनिवार को शाहजहानी पार्क में गैस पीड़ित जमा होते और अपनी जीत के लिए संघर्ष जारी रखने का नारा बुलंद करते। यह सिलसिला कई सालों से निरंतर चला आ रहा है।

    उन्हें करीब से जानने वाले कहते हैं कि जब्बार को पूरी जिंदगी इस बात का सबसे ज्यादा मलाल रहा कि गैस हादसे के लिए जिम्मेदार और अपराधी वारेन एंडरसन को देश से बाहर जाने दिया गया और भारत सरकारें उसे भारत लाकर सजा दिलाने में असफल रहीं।

    गैस पीड़ितों के लिए जब्बार द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों का ही नतीजा रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 1988 में गैस पीड़ितों को गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया। इसके बाद घायलों को 25-25 हजार रुपये की मदद मिली। इसके अलावा भी कई फैसले उनकी लड़ाई के चलते आए और कई मामले अब भी न्यायालय में लंबित हैं।

    माकपा के वरिष्ठ नेता बादल सरोज ने अब्दुल जब्बार के निधन पर कहा, “अकेले एक शख्स का जाना भी संघर्षो की शानदार विरासत वाले शहर भोपाल को दरिद्र बना सकता है। एक आवाज का खामोश होना भी कितना भयावह सन्नाटा पैदा कर सकता है, कल शाम से महसूस हो रहा है।”

    अब्दुल जब्बार पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे। उनका एक निजी अस्पताल में इलाज हो रहा था। राज्य सरकार ने उन्हें इलाज के लिए मुंबई भेजने का इंतजाम किया था। वह शुक्रवार को मुंबई जाने वाले थे, मगर उससे पहले ही यह दुनिया छोड़ किसी दूसरी दुनिया में चले गए।

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *