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    बेरोजगारी

    एक दौर था जब इंजीनियरिंग सबसे प्रतिष्ठित पढ़ाइयों में शुमार थी। विज्ञान और गणित के होनहार छात्र बड़ी मुश्किल से इंजीनियरिंग संस्थानों में दाखिला पाते थे। उनके परिश्रम और संस्थानों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ने इंजीनियरिंग के क्षेत्र में उच्च मापदण्ड स्थापित किये। यह उस वक़्त पर सबसे रोजगारपरक और मुश्किल कोर्स था। उस वक़्त केवल गिने-चुने संस्थान हुआ करते थे जो इसकी शिक्षा देते थे।

    देश का पहला इंजीनियरिंग संस्थान थॉमसन कॉलेज था जो उत्तर प्रदेश के रूड़की में 1847 में स्थापित हुआ था। इसे सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए शुरू किया गया था। आगे चलकर यही संस्थान आईआईटी, रूड़की के नाम से प्रसिद्द हुआ।

    आर्थिक उदारीकरण के दौर ने देश में रोजगार के नए अवसर खोले और उद्योग-धंधों को फलने-फूलने का मौका दिया। उस वक़्त में तकनीकी रूप से दक्ष लाखों युवाओं की जरुरत महसूस हुई। यही वह दौर था जब इंजीनियरिंग की शिक्षा ने व्यवसायीकरण का रूप लेना शुरू किया। इंजीनियरिंग की शिक्षा देने के नाम पर निजी क्षेत्र में उद्योगपतियों और नेताओं ने निवेश किया और यह उनकी कमाई का जरिया बन गई। यहीं से इंजीनियरिंग शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आने लगी और रही-सही कसर को आरक्षण ने पूरा कर दिया।

    अतीत पर एक नज़र

    अगर 1991-92 के दौर की बात करें तो दक्षिण भारत इंजीनियरिंग शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। उत्तर और मध्य भारत में केवल गिने-चुने सरकारी संस्थान थे जो इंजीनियरिंग की शिक्षा देते थे। उस वक़्त देश में कुल इंजीनियरिंग संस्थानों की संख्या बमुश्किल तीन अंकों में पहुँची थी। फिर अचानक ही प्राइवेट संस्थानों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि होने लगी। वर्ष 2006-07 में यह आंकड़ा बढ़कर 1511 तक पहुँच चुका था और 2014-15में दुगने से भी ज्यादा होकर 3345 तक पहुँच गया था। संस्थानों की संख्या में हुई इस बेतहाशा वृद्धि से अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर कहाँ पहुंचा होगा।

    भयावह है आंकड़ें

    आंकड़ों के मुताबिक़ भारत हर साल दुनिया को सबसे ज्यादा विज्ञान और इंजीनियरिंग स्नातक देता है। अकेले इंजीनियरिंग की बात करें तो देश में हर साल करीब 15 लाख छात्र डिग्रीधारी बन रहे हैं और अगले 2-3 सालों तक इस आंकड़ें में कोई खास बदलाव नहीं आने वाला। 15 लाख में से सिर्फ 7-8 फीसदी छात्रों को अपने क्षेत्र की नौकरी मिलती है और 22-23 फीसदी छात्रों को और कहीं रोजगार मिलता है। शेष 70 फीसदी छात्र बेरोजगार रहते हैं और इस बेरोजगारी का तगमा पाने के लिए उन्हें औसतन 8-10 लाख रूपये और 4 साल का कीमती वक़्त खर्च करना पड़ता है।

    “गुरुओं” की कमी से जूझ रहे हैं संस्थान

    अगर देश के सर्वोच्च इंजीनियरिंग संस्थानों की बात करें तो वे भी अध्यापकों की कमी से जूझ रहे हैं। मानकों के अनुसार हर 7 छात्रों पर औसतन 1 अध्यापक होना चाहिए। देश के आईआईटी संस्थानों में यह आंकड़ा 15-30 छात्रों पर 1 अध्यापक का है।एनआईटी संस्थानों में यह आंकड़ा 25-40 छात्रों पर 1 अध्यापक का है। ऐसे में प्राइवेट संस्थानों की बात करना बेमानी होगी।

    मानकों का नहीं होता पालन

    शिक्षा के व्यवसायीकरण और राजनीतिकरण ने संस्थानों को तय मानकों से बहुत दूर कर दिया है। कोई भी सांसद या विधायक आसानी से अपनी पार्टी के शासनकाल में मान्यता लेकर संस्थान शुरू कर देता है और यह संस्थान उसके लिए “सोने का अंडा देने वाली मुर्गी” साबित होता है। संस्थान में स्थापित शिक्षा के मानकों और छात्रों के भविष्य से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें हर सूरत में बस पैसों की चाह रहती है। अपनी राजनीतिक पकड़ और आर्थिक मजबूती के बल पर ये किसी सरकारी शिकंजे में भी नहीं फंसते हैं।

    रोजगार की कमी

    इंजीनियरिंग के क्षेत्र में रोजगार की कमी है। सरकार इस सच से मुँह फेरकर हर साल नए संस्थानों को मान्यता दे रही है और बेरोजगारों की फ़ौज तैयार कर रही है। सरकार की युवाओं को प्रोत्साहित करने की सारी योजनाएं सुनने में या कागजों पर ही अच्छी लगती हैं। ये योजनाएं ऐसा सच है जो कभी जमीनी हकीकत नहीं लेता। निम्न-मध्यम वर्ग का एक छात्र जो बेरोजगारी का तगमा हासिल करने में 8-10 लाख रूपये खर्च कर चुका हो वो अपने कर्ज की गारंटी कैसे देगा, सरकार को इसपर सोचने की जरुरत है।

    इंजीनियरिंग का अभिशाप बेरोजगारी

    सुझाव

    नीचे कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं जो इस समस्या को नियंत्रित करने में उपयोगी साबित हो सकते है।

    – अगले कुछ सालों के लिए नए इंजीनियरिंग संस्थानों की मान्यता पर रोक लगा देनी चाहिए।
    – वर्तमान में मान्यता प्राप्त संस्थानों का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए।
    – एक ही केंद्रीय तकनीकी शिक्षा कॉउन्सिल होनी चाहिए जो मान्यता और गुणवत्ता निर्धारण करे। यह मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रति उत्तरदायी होनी चाहिए।
    – मानकों को पूरा न करने वाले संस्थानों की मान्यता तत्काल रद्द करनी चाहिए और वहाँ के छात्रों को दूसरे संस्थानों में स्थानांतरित कर देना चाहिए।
    – सरकार को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से रोजगार सम्बन्धी आंकड़ें जुटाकर देश में इंजीनियरिंग सीटों का निर्धारण करना चाहिए।
    – युवाओं के प्रति सरकार को उदार नीतियां अपनानी चाहिए और उन्हें उद्योग लगाने में मदद करनी चाहिए।
    – सरकार को औद्योगीकरण में निवेश बढ़ाना चाहिए और रोजगार के नए अवसर पैदा करने चाहिए।
    – अनुसन्धान और विकास क्षेत्र में सरकार को और निवेश करना चाहिए।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।