Fri. Apr 19th, 2024
    गुजरात विधानसभा चुनाव

    वर्ष के अंत तक गुजरात में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। दशकों से भाजपा के गढ़ रहे गुजरात में अब भाजपा का सिंहासन डोलता नजर आ रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दिल्ली चले जाने के बाद गुजरात की राजनीति पर भाजपा की पकड़ कमजोर हुई है। बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने के लिए भाजपा के पास अब नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय और सशक्त चेहरा नहीं है। पिछले 15 सालों में यह पहली बार है जब भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई के बिना गुजरात विधानसभा चुनावों में उतर रही है। यही वजह है कि भाजपा इन चुनावों को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरत रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लगातार गुजरात का दौरा कर रहे हैं और गुजरात बचाने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं।

    गुजरात भाजपा के समक्ष एक सशक्त चेहरे की कमी ही अकेली चुनौती नहीं है। पाटीदार आन्दोलन, दलित आन्दोलन, ओबीसी आन्दोलन, किसान आन्दोलन और सरकार विरोधी लहर आज गुजरात में भाजपा के समक्ष बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। भाजपा आलाकमान इन सभी चुनौतियों से निपटने की पुरजोर कोशिश कर रहा है पर कहीं ना कहीं यह नाकाफी साबित हो रहा है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी के टर्नओवर में हुए 16,000 गुना इजाफे का मामला भी भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है। गुजरात सरकार जातीय आन्दोलन के अगुआ नेताओं को मनाने की हरसंभव कोशिश कर रही है पर अब तक उसे कोई खास सफलता मिलती नहीं दिख रही है। शायद यही वजह है कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद गुजरात बचाने के लिए कूद पड़े हैं।

    लोकप्रिय चेहरे की कमी से जूझ रही है गुजरात भाजपा

    पिछले 3 सालों में गुजरात को 3 मुख्यमंत्री मिले हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद आंनदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सँभाली थी और उनके बाद विजय रुपाणी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। नरेंद्र मोदी के बाद अमित शाह ही ऐसे नेता थे जो गुजरात भाजपा में दमखम रखते थे। राजनाथ सिंह ने गृह मंत्री बनने पर भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्र अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष चुने गए। गुजरात को आनंदीबेन पटेल के हाथों में सौंपकर भाजपा ने महिला सशक्तीकरण के नारे को बुलंद करने की कोशिश की। आनंदीबेन पटेल गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। भाजपा ने उनको कमान सौंपकर अपने परंपरागत वोटर पाटीदार समाज को साधने का प्रयास भी किया। आंनदीबेन पटेल बतौर मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल में लोकप्रिय नहीं रही थी। सरकार की गिरती लोकप्रियता के मद्देनजर विजय रुपाणी को गुजरात की कमान सौंपी गई।

    गुजरात विधानसभा चुनाव
    लोकप्रिय नहीं रहे हैं मुख्यमंत्री

    दरअसल नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद गुजरात भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो पार्टी को अपने कन्धों पर आगे ले जा सके। नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में किसी भी अन्य भाजपा नेता को इतनी लोकप्रियता ही नहीं मिली कि वह पुरे सूबे का प्रतिनिधित्व कर सके। गुजरात के नाम पर लोगों के जेहन में सिर्फ नरेंद्र मोदी का नाम आता था। अमित शाह के राज्यसभा जाने के बाद अब गुजरात भाजपा की स्थिति भी गुजरात कांग्रेस जैसी हो गई है। गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला भाजपा को बैकफुट पर ले गया था। विजय रुपाणी भी अपने कार्यकाल में जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके हैं। ऐसे में भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर वोट तो मिल जाएंगे पर सवाल यह है कि क्या राज्य को फिर एक बार नरेंद्र मोदी जैसा करिश्माई नेतृत्व मिल सकेगा?

    सरकार विरोधी लहर

    पिछले 2 सालों से गुजरात में सरकार विरोधी लहर दिखाई दे रही है। समाज का हर वर्ग किसी ना किसी मुद्दे को आधार बनाकर सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर चुका है। भाजपा पिछले 2 दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज है। इतने लम्बे समय से सत्तासीन रहने की वजह से गुजरात के लोगों में भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है। हालाँकि भाजपा के शासनकाल में गुजरात ने बहुत तरक्की की है और वह आज देश के समृद्ध राज्यों की सूची में अग्रणी स्थान पर काबिज है। 2014 लोकसभा चुनावों के वक्त ऐसा ही कुछ हुआ था जब पूरे देश में सत्ता विरोधी लहर चल रही थी। तब भाजपा प्रचण्ड बहुमत से सत्ता में आई थी। परिवर्तन समय की मांग है और शायद गुजरात की जनता अब परिवर्तन चाहती है।

    पाटीदारों को मनाना बड़ी चुनौती

    25 अगस्त, 2015 का दिन गुजरात ही नहीं वरन देश के इतिहास में दर्ज हो गया था। हार्दिक पटेल के आह्वान पर अहमदाबाद के जेएमडीसी मैदान में भारी भीड़ एकत्रित हुई थी और गुजरात का पाटीदार समाज आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर गया। तकरीबन 5 लाख लोगों की भीड़ सडकों पर उतर गई और कई दिनों तक गुजरात बिलकुल थम सा गया। आरक्षण की मांग को लेकर हुए इस पाटीदार आन्दोलन ने गुजरात की दशा को ही बदल कर रख दिया और विपक्षी दलों को भाजपा के खिलाफ उम्मीद की एक रोशनी दिखाई। बीते दिनों पाटीदार आन्दोलन के अगुआ हार्दिक पटेल ने भाजपा के खिलाफ संकल्प यात्रा निकाली थी जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे। राहुल गाँधी की सौराष्ट्र यात्रा के दौरान हार्दिक पटेल ने उनका स्वागत किया था और समर्थन देने की बात कह सियासी सरगर्मियां बढ़ा दी थी।

    हार्दिक पटेल
    पाटीदार आन्दोलन के मुखिया हार्दिक पटेल

    पाटीदार समाज भाजपा का परम्परागत वोटबैंक रहा है और उसके खिसकने का नुकसान निश्चित तौर पर भाजपा को होगा। भाजपा इस कमी की भरपाई करने के लिए अन्य जातीय समीकरणों को साधने में जुटी थी जो इतने आसान नजर नहीं आ रहे हैं। गुजरात विधानसभा की कुल 182 सीटों में से 70 सीटों पर पाटीदार समाज का प्रभुत्व है। गुजरात में कुल मतदाताओं की संख्या का पाँचवा हिस्सा पाटीदार समाज के वोटरों का है। पाटीदार समाज की नाराजगी का असर वर्ष 2015 में सौराष्ट्र में हुए जिला पंचायत चुनावों में भी देखने को मिला था जब भाजपा क्षेत्र की 11 में से 8 सीटों पर हार गई थी। गुजरात विधानसभा चुनावों से पूर्व भाजपा को पाटीदार समाज को अपनी तरफ मिलाना होगा नहीं तो कांग्रेस-पाटीदार समाज का गठजोड़ चुनावों में भाजपा की मुश्किलें और बढ़ा देगा।

    अधर में लटकी है गुजरात भाजपा

    2012 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के मतों का अंतर महज 9 फीसदी था। भाजपा को 47 फीसदी मत मिले थे वहीं कांग्रेस को 38 फीसदी मत मिले थे। 2012 विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत का बड़ा कारण पाटीदारों का समर्थन था। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार चौथी बार गुजरात के सियासी दंगल में फतह हासिल की थी। पर मौजूदा परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। आज गुजरात भाजपा के पास नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय चेहरा नहीं है। पाटीदारों के कटने से भाजपा का परम्परागत वोटबैंक भी उससे खिसक चुका है। ऐसे में गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा अधर में लटकी नजर आ रही है। पाटीदारों को मनाने की भाजपा की हर कोशिश नाकाम होती नजर आ रही है।

    गुजरात विधानसभा चुनाव
    अधर में लटकी है गुजरात भाजपा

    अगर 2012 के विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो कड़वा बिरादरी के 82 फीसदी वोट भाजपा को मिले थे। लेउवा बिरादरी के 63 फीसदी वोटरों ने भाजपा को चुना था। 80 के दशक से ही पाटीदार समाज के 80 फीसदी वोटर भाजपा के पक्ष में मतदान करते आए हैं। इसी वजह से पाटीदार समाज को भाजपा का पारम्परिक वोटबैंक कहा जाता रहा है। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को 50 फीसदी मत मिले थे वहीं कांग्रेस को तकरीबन 40 फीसदी मत मिले थे। पाटीदार समाज के वोटरों के मत प्रतिशत 20 है। इस लिहाजन अगर 80 फीसदी पाटीदार भी कांग्रेस के साथ हो जाए और मुस्लिम दलित एक होकर कांग्रेस का साथ दे दें तो भाजपा के लिए गुजरात बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

    पाटीदार आरक्षण आन्दोलन का विरोध कर रहा है ओबीसी वर्ग

    अपने परम्परागत वोटबैंक रहे पाटीदारों के खिसकने के बाद भाजपा यह आस लगाए बैठी थी कि उसे ओबीसी वर्ग का साथ मिल जाएगा। पाटीदार समाज द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर किए गए आन्दोलन के विरोध में गुजरात का ओबीसी वर्ग एकजुट हो गया है। युवा नेता अल्पेश ठाकुर को ओबीसी वर्ग ने अपना नेता मान लिया है। अल्पेश ठाकुर ने पाटीदार आरक्षण आन्दोलन का विरोध किया था और कहा था कि यदि भाजपा शासित गुजरात सरकार अगर पाटीदार आन्दोलन के आगे घुटने टेकती है तो उसे सत्ता से उखाड़ फेंका जाएगा। अल्पेश ठाकुर गुजरात क्षत्रिय-ठाकुर सेना के अध्यक्ष हैं और ओबीसी एकता मंच के संयोजक की भूमिका में भी हैं। ओबीसी वर्ग में अल्पेश ठाकुर की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राज्य में ओबीसी वर्ग की 146 जातियों को एकजुट किया है और उनका समर्थन हासिल किया है।

    अल्पेश ठाकुर
    पाटीदार आरक्षण आन्दोलन का विरोध कर रहा है ओबीसी वर्ग

    अल्पेश ठाकुर सत्ताधारी गुजरात सरकार पर लगातार हमलावर रहे हैं और शराबबंदी और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को आधार बना रहे हैं। भाजपा और ओबीसी वर्ग की बातचीत के अभी तक कोई सार्थक परिणाम निकल कर सामने नहीं आए हैं। अल्पेश ठाकुर के साथ गुजरात का सबसे बड़ा मतदाता तबका खड़ा है। गुजरात में 40 फीसदी मतदाता ओबीसी वर्ग से आते हैं और 70 सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं। इससे स्पष्ट है कि गुजरात में ओबीसी वर्ग सत्ता तक पहुँचने में कितनी अहम भूमिका निभा सकता है। गुजरात सरकार द्वारा पाटीदार आरक्षण के लिए आयोग के गठन को मंजूरी देने का ओबीसी वर्ग ने विरोध किया था। सत्ताधारी दल भाजपा के समक्ष सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसे पाटीदार और ओबीसी वर्ग में से किसी एक का पक्ष लेना है और दोनों ही समुदाय सत्ता तक पहुँचने की अहम कड़ी है।

    भाजपा के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं दलित-आदिवासी

    बीते दिनों सौराष्ट्र के उना में कथित गौरक्षकों द्वारा दलितों की पिटाई का मामला सामने आया था। इस मामले ने काफी सुर्खियां बटोरी थी और गुजरात के दलित समाज को भाजपा के खिलाफ कर दिया। पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी ने गुजरात में दलितों के इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। उना में गौरक्षा के नाम पर हुई दलितों की पिटाई का जिग्नेश मेवानी ने विरोध किया था और इसके खिलाफ आन्दोलन भी छेड़ा था। “आजादी कूच आन्दोलन” के माध्यम से जिग्नेश मेवानी ने एक साथ 20,000 दलितों को मरे जानवर ना उठाने और मैला ना ढ़ोने की शपथ दिलाई। इस दलित आन्दोलन ने बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से गुजरात की भाजपा सरकार को करारा झटका दिया था। राज्य के 6 फीसदी मतदाता दलित हैं और 13 सीटों पर प्रभाव रखते हैं। इनकी नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है।

    जिग्नेश मेवानी
    भाजपा के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं दलित-आदिवासी

    कांग्रेस मध्य गुजरात के आदिवासियों को भी अपने साथ मिलाने के लिए प्रयासरत है। नर्मदा विस्थापितों के पुनर्वासन के लिए भाजपा सरकार अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई है। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन पिछले चुनावों में भी अच्छा रहा था। अपने मध्य गुजरात दौरे के दौरान राहुल गाँधी ने ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में जाकर कांग्रेस की जमीन तैयार करने की कोशिश की। राहुल गाँधी की यात्राओं को अच्छा-खासा जनसमर्थन मिल रहा है और आने वाले चुनावों के वक्त उनकी लोकप्रियता कांग्रेस को फायदा पहुँचाएगी। गुजरात के दलित और आदिवासी वोटर भाजपा से कट चुके हैं और कांग्रेस की तरफ उनका बढ़ता झुकाव भाजपा के सियासी समीकरणों को बिगाड़ सकता है।

    कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक हैं मुस्लिम समाज

    गोधरा दंगों के बाद देशभर में भाजपा की छवि हिंदुत्ववादी दल की बन गई थी और नरेंद्र मोदी को साम्प्रदायिक नेता का तगमा मिल गया था। पिछले डेढ़ दशकों में भाजपा और नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि को सुधारने का बहुत किया है पर कुछ जख्मों के घाव ताउम्र रह जाते हैं। मुस्लिम समुदाय को हमेशा से ही कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक माना जाता रहा है। भाजपा के हिंदुत्ववादी छवि की वजह से मुस्लिम मतदाता भाजपा से कटते रहे हैं। आज विकास का मुद्दा जाति-धर्म से ऊपर हो गया है फिर भी मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद कांग्रेस ही है। गुजरात में मुस्लिम आबादी 9 फीसदी है और राज्य की 35 सीटों पर मुस्लिम मतदाता प्रभाव रखते हैं। ऐसे में मुस्लिम मतदाताओं का कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण गुजरात की सत्ता तक पहुँचने की राह में भाजपा की मुश्किलें और बढ़ा देगा।

    अहमद पटेल की जीत से मिली थी संजीवनी

    अगस्त महीने में हुए गुजरात राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार और पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले अहमद पटेल ने जीत ने बगावत की आंच में झुलस रही गुजरात कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया था। इसके बाद से ही कांग्रेस ने गुजरात विधानसभा चुनावों के मद्देनजर अपनी तैयारियों को असली जामा पहनाना शुरू किया था। सितम्बर महीने में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने अहमदाबाद में कार्यकर्ता संवाद कार्यक्रम से कांग्रेस के चुनावी अभियान की शुरुआत की थी। उसके बाद राहुल गाँधी लगातार गुजरात में साक्रिय रहे और कांग्रेस के लिए सियासी जमीन तैयार की। राहुल गाँधी के आक्रामक तेवरों और कार्यकर्ताओं की मेहनत से गुजरात कांग्रेस आज भाजपा के मुकाबले खड़ी हो गई है।

    अहमद पटेल
    अहमद पटेल की जीत से मिली थी संजीवनी

    गुजरात विधानसभा चुनाव अब भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन चुका है। एक ओर जहाँ जातीय आन्दोलनों और कांग्रेस के आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान से भाजपा गुजरात में बैकफुट पर है वहीं जीएसटी सुधार, पाटीदार आरक्षण के लिए आयोग गठन जैसे कदमों को उठाकर सत्ताधारी भाजपा सरकार ने बैकअप भी तैयार कर लिया है। गुजरात विधानसभा चुनाव आगामी लोकसभा चुनावों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे है। भाजपा के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव प्रतिष्ठा और बादशाहत की लड़ाई है वहीं कांग्रेस के लिए यह वजूद बचाने की लड़ाई है। गुजरात के नतीजे आने वाले समय में देश के राजनीति की दिशा तय करेंगे।

    By हिमांशु पांडेय

    हिमांशु पाण्डेय दा इंडियन वायर के हिंदी संस्करण पर राजनीति संपादक की भूमिका में कार्यरत है। भारत की राजनीति के केंद्र बिंदु माने जाने वाले उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले हिमांशु भारत की राजनीतिक उठापटक से पूर्णतया वाकिफ है।मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद, राजनीति और लेखन में उनके रुझान ने उन्हें पत्रकारिता की तरफ आकर्षित किया। हिमांशु दा इंडियन वायर के माध्यम से ताजातरीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचारों को आम जन तक पहुंचाते हैं।