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    कोयला

    वर्ष 2014 में हुई कोयले की कमी के चलते तब देश भर के पावर प्लांट बंद होने की कगार पर आ गए थे। वही स्थिति वर्तमान समय में फिर से बनती हुई नज़र आ रही है। भारत के कुल 26 पावर प्लांट इस समय कोयले की कमी के चलते प्लांट बंद हो जाने की चेतावनी भी जारी कर चुके हैं।

    वर्ष 2014 में सामने आई कोयले की कमी की वजह लोगों ने ‘कोला आवंटन’ को समझा था। तब माना जा रहा था कि कोल ब्लॉक को ऊंची कीमत में बेचने के लिए यह सरकार की कोई रणनीति हो सकती है। लेकिन ऐसा नहीं था, उस समय देश वाकई कोयले की कमी से जूझ रहा था। कोल ब्लॉक की नीलामी से उस कमी पर असर तो पड़ा था, लेकिन वो उतना बड़ा असर नहीं था।

    पावर सेक्टर में कोयले की मांग के चलते देश को कोयला आयात भी करना पड़ जाता है। 2004 में पावर सेक्टर की स्थापना के बाद से ही कोयले की मांग में अचानक से उछाल आ गया। 2006 में देश ने 217 लाख टन कोयले का आयात किया, वहीं ये आँकड़ा वर्ष 2016 आते-आते 1313 लाख टन पर पहुँच गया।

    कोयले की खपत और उपलब्धता के बीच जो दूसरी थी, वो धीरे-धीरे और बढ़ती गयी। वहीं 2014 के आस पास सामने आए कोयले घोटाले ने भी देश के कोयला बाज़ार को हिला कर रख दिया था। फिलहाल नीचे दिये गए कुछ बिन्दुओं से कोयला उत्पादन के कारकों को समझने की कोशिश करेंगे।

    कोयला उत्पादन के मुख्य पहलू कुछ ऐसे हैं:

    भूमि अधिग्रहण-

    भारत देश में भूमि अधिग्रहण कभी आसान काम नहीं रहा है। राजनीतिक कारणों से भूमि अधिग्रहण हमेशा पेचीदा मामला रहा है।

    कई बार दलित व पिछड़े वर्ग की आड़ लेकर भी लोग अपनी राजनीति चमकाने के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण नहीं होने देते हैं। जबकि सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण होने पर उस समय चल रहे सर्कल रेट से काफी ज्यादा राशि भूमि के एवज में मालिक को दी जाती है।

    संबन्धित विभाग से एनओसी-

    भारत में अधिकतर वो स्थान जहां कोयला मिलने के आसार होते हैं, वो वनों या जंगल के बीच ही होते हैं। ऐसे में कोयले की खोज में खुदाई से पहले वन और पर्यावरण विभाग की एनओसी लेना भी अपने आप में कठिन काम है।

    ऐसे में भारतीय नौकरशाही से सीधा सामना हो जाना आम बात होती है। इस चक्कर में एनओसी की फाइल भी दर-ब-दर टहलती रहती है। जिसके चलते कोयला खदान में काम की शुरुआत समय से हो नहीं पाती है।

    माल ढुलाई के लिए रेल की उपलब्धता-

    तीसरा पहलू यातायात का है। कई बार ऐसा होता है कि कोयले की खदान से कोयला तो निकाल रहा है, लेकिन उसे ले जाने में आने वाले खर्च की वजह से वो कोयला अधिक महँगा होने लगता है।

    ऐसे में रेल यातायात कोयले की ढुलाई के लिए सबसे सस्ता एवं सबसे उपयुक्त साधन होता है। लेकिन जरूरी नहीं है कि जहां खदान खोजी गयी है वहाँ रेलवे लाइन पहले से ही मौजूद हो। इस समस्या भी देश के कोयला उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित करती है।

    सरकार इन तरह की दिक्कतों को सुलझाने के लिए निम्न कदम उठा चुकी है-

    • सरकार ने कोयला खदान के लिए सभी तरह की स्वीकृतियों के समय रहते मिल जाने के लिए एक वेब पोर्टल पीएमजी (प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग ग्रुप) की शुरुआत की थी।
    • मंत्रालय ने हर महीने निर्धारित तारीख पर सभी संबन्धित अधिकारियों के साथ बैठक करने का फैसला लिया था।
    • इसके तहत संबन्धित राज्य के प्रतिनिधि को दिल्ली आकार अपनी समस्या रखने की जरूरत नहीं थी, बल्कि दिल्ली से मंत्री व अधिकारी संबन्धित राज्य जाकर समस्या को सुलझाते थे।

    इसे लेकर कुछ आश्चर्यजनक तथ्य भी सामने आए हैं-

    • 2014-15 में कोल इंडिया ने करीब 5,500 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। वहीं बाकी सभी सरकारी कंपनियां भूमि अधिग्रहण में फेल नज़र आती हैं।
    • इसके लिए करीब 3,400 एकड़ जमीन पर जल्द ही वन और पर्यावरण विभाग की एनओसी भी मिल गयी।
    • इस दौरान रेलवे की उपयोगिता को बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया। 2015-16 में करीब 200 से भी अधिक रेलवे रेक की स्थापना की गयी।

    इसी के साथ ही 2014-15 में कुल 310 लाख टन कोयले का उत्पादन हुआ, जो पिछले 4 सालों के वार्षिक उत्पादन की तुलना में अधिक था।

    फिलहाल ऊर्जा उत्पादन के लिए ताप विद्युत गृह के पास करीब 20 दिन का कोयला मौजूद है।

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